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कार्यस्थलों पर माताओं के लिए ब्रेक, पर्सनल प्लेस व डे केयर होंः डॉ तिलक

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  • देश के जाने-माने बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. राजतिलक से दीनार टाइम्स की एक्सक्लूसिव बातचीत

अंजनी निगम, डीटीएनएन

कानपुर , बाल रोग विशेषज्ञ डॉ राज तिलक का माताओं से कहना है मां का दूध ही बच्चे के लिए पहला टीका, पहला पोषण और पहला अधिकार है। उसे इससे वंचित न कीजिए। उत्तर भारत में स्तनपान की बदलती आदतों पर डॉ तिलक से विशेष वार्ता।

प्रश्न – संस्थागत प्रसव से एक ओर जन्म के समय होने वाली मां की मृत्यु दर में तो कमी आई है लेकिन बच्चों के स्वास्थ्य पर कोई बहुत अच्छा प्रभाव नहीं दिख रहा, स्तनपान में क्या बदलाव आया है ?
उत्तर – जी, यह बात बिल्कुल सही है। शहरों में सुख-सुविधाएं तो बढ़ी हैं लेकिन मातृत्व के इस पहले कर्तव्य को अपेक्षित समर्थन नहीं मिल पा रहा है। कर्मकार होने के नाते उन्हें मातृत्व अवकाश तो मिलता है लेकिन कार्यस्थल पर मातृत्व के लिए जगह नहीं मिलती। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार भारत में विशेष स्तनपान की दर 63.7 फीसद तक पहुंच गई है, जो पहले 54.9 फीसद थी लेकिन शहरी उत्तर भारत में यह तस्वीर उतनी उत्साहजनक नहीं है। धनवान और शिक्षित महिलाओं में विशेष स्तनपान की दर 38–45 फीसद से ऊपर नहीं जा पाई है। इसकी वजह कामकाजी जीवनशैली, सीज़ेरियन डिलीवरी की बढ़ती दर, और फार्मूला दूध का प्रभाव है।

प्रश्न – शहरी महिलाओं में स्तनपान को लेकर किस तरह की प्रमुख चुनौतियां आ रही हैं ?
उत्तर – इस मामले में पहली चुनौती स्तनपान समय पर शुरू न करना है। जन्म के पहले एक घंटे में स्तनपान शुरू करने की दर केवल 41.8 फीसद है जिसे शत प्रतिशत होना चाहिए। दूसरी चुनौती कार्यस्थल का समर्थन न मिलना है। कामकाजी महिलाओं में विशेष स्तनपान की दर केवल 60.3 फीसद है जो राष्ट्रीय स्तर से भी कम है। तीसरी और चिंताजनक बात यह है कि कई माताओं को लगता है कि फार्मूला दूध ही स्मार्ट चॉइस है जो बिल्कुल भी गलत है वास्तव में ये एक मार्केटिंग भ्रम है।

प्रश्न – क्या शहरी महिलाओं में शिक्षा और आय का स्तनपान पर सकारात्मक असर नहीं होता ?
उत्तर – यह भी एक आश्चर्यजनक बात है, शहरी महिलाओं में शिक्षा और आय का स्तनपान के मामले में कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं दिखता है। लखनऊ और दिल्ली जैसे शहरों के आंकड़े दिखाते हैं कि ग्रामीण गरीब महिलाएं शहरी धनी और शिक्षित महिलाओं की अपेक्षा अधिक स्तनपान करवा रही हैं। इसका कारण यह है कि शहरी महिलाओं के पास सूचना तो है, पर किसी तरह का समर्थन नहीं है। ना ही घर से, ना ही अस्पताल से और ना ही कार्यस्थल से।

प्रश्न – स्तनपान कम कराने का बच्चों और माताओं पर क्या और किस तरह से असर पड़ता है ?
उत्तर – यह जीवन और मृत्यु का मामला है। भारत में हर साल एक लाख बच्चों की जान स्तनपान न मिलने के कारण जाती है। 34.7 मिलियन बच्चों में दस्त और संक्रमण के मामले केवल इसलिए होते हैं क्योंकि उन बच्चों को मां का दूध नहीं मिल पाया था। माताओं में भी स्तनपान न करने से स्तन कैंसर, मधुमेह और मोटापा बढ़ता है।

प्रश्न – इस स्थिति से निपटने के लिए आपके हिसाब से क्या किया जाना चाहिए ?
उत्तर – प्रसव के तुरंत बाद स्तनपान शुरू किया जाए चाहे सीज़ेरियन या सामान्य प्रसव हो। हर अस्पताल में प्रशिक्षित ‘लैक्टेशन काउंसलर’ होना चाहिए। कार्यस्थलों पर स्तनपान के लिए निजी स्थान, ब्रेक और सुरक्षित डे-केयर सेंटर होने चाहिए। फार्मूला दूध के विज्ञापन पर सख्त नियंत्रण लगना चाहिए। जनता में जागरूकता फैलाई जाए कि मा का दूध संपूर्ण टीका यानी वैक्सीनेशन है।

………. इनसेट ……… इन बातों का रखना होगा ध्यान

स्तनपान की अपेक्षा बोतल और फॉर्मूला दूध की ओर बढ़ते रुझान के कारण भारत को होने वाले नुक़सान।

आर्थिक हानिः स्तनपान न कराने से दस्त, निमोनिया, कान के संक्रमण जैसी बीमारियों की संभावना बढ़ जाती है जिनके इलाज पर हर साल अनुमानित 24,000 करोड़ का खर्च आता है। इतना ही नहीं फॉर्मूला दूध पीने वाले बच्चों में एनआईसीयू में भर्ती होने की संभावना अधिक होती है जिसमें अनाप-शनाप खर्च आता है।

उत्पादकता में गिरावटः अपर्याप्त स्तनपान से होने वाली समय पूर्व मृत्यु व मानसिक विकास में कमी के कारण भारत को 40 से 60,000 करोड़ प्रतिवर्ष का नुकसान होता है। साथ ही बच्चों की बौद्धिक क्षमता आईक्यू लेवल औसतन 3–5 अंक कम होता है, जिससे उनकी भविष्य की कमाई पर प्रभाव पड़ता है।

आयात और निर्माण लागतः हर साल तीन हजार करोड़ से अधिक का खर्च फॉर्मूला दूध, बोतलें और निप्पल आयात और निर्माण पर किया जाता है। इससे विदेशी मुद्रा की निकासी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर निर्भरता बढ़ती है।

कार्यस्थल पर अनुपस्थितिः फॉर्मूला दूध पीने वाले बच्चों में बीमारियां अधिक होती हैं, जिससे माताओं की कार्य से अनुपस्थिति बढ़ती है। इससे नियोक्ताओं को कार्यक्षमता में कमी और आर्थिक नुकसान होता है।

पर्यावरणीय हानिः दुनिया भर में फॉर्मूला दूध से लगभग 4 मिलियन टन कार्बन डाई ऑक्साइड निकली है जिसमें भारत की भागीदारी तेजी से बढ़ रही है। स्तनपान लगभग शून्य कार्बन उत्सर्जन वाला विकल्प है।

जल संसाधनों पर प्रभावः एक किलो फॉर्मूला दूध बनाने और स्टरलाइजेशन में हजारों लीटर पानी खर्च होता है। डेयरी उद्योग के अपशिष्ट और पैकिंग से जल प्रदूषण बढ़ता है