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घाटी की राख से उठती चेतावनी: आतंकवाद का चेहरा, पाकिस्तान की भूमिका और भारत के लिए नया संकल्प

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राष्ट्रीय सुरक्षा व वैचारिक संघर्ष पर दृष्टिकोण…22 अप्रैल 2025 को कश्मीर के पहलगाम में हुआ आतंकी हमला महज़ एक सुरक्षा चूक नहीं था — यह भारत की अस्मिता, धार्मिक सहिष्णुता और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर किया गया सोचा-समझा, वैचारिक हमला था।


28 निर्दोष हिन्दू पर्यटकों की हत्या, हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम किन राक्षस शक्तियों से जूझ रहे हैं। यह हमला उस जिहादी मानसिकता का नतीजा है, जिसने कश्मीर को एक धार्मिक युद्ध का मंच बना दिया है — जहाँ कट्टरपंथी विचारधाराएं युवाओं को भारत और विशेष रूप से हिन्दू धर्म के विरुद्ध हिंसा के लिए उकसा रही हैं।


पाकिस्तान – आतंक का संरक्षक, मानवता का पराजयस्थल
इस घिनौने हमले के पीछे पाकिस्तान का हाथ केवल राजनीतिक आरोप नहीं, बल्कि वर्षों से चली आ रही कटु सच्चाई है। आतंकवाद को “रणनीतिक साधन” मानने वाले पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान ने न केवल भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है, बल्कि अपने ही समाज को आत्मघाती मानसिकता की दलदल में धकेल दिया है।


जिन आतंकी गुटों को वह पालता-पोसता है — जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिदीन और अब TRF (The Resistance Front)— वे न केवल भारतीय नागरिकों को मारते हैं, बल्कि कश्मीर की सोंधी मिट्टी को खून से लथपथ कर चुके हैं। पाकिस्तान न केवल एक विफल राष्ट्र है, बल्कि एक असफल पड़ोसी भी है — जिसकी नीयत न विकास में है, न शांति में।


कश्मीरी उग्रवाद – घाटी के लिए अभिशाप
सरकार ने जिस संकल्प और संवेदनशीलता के साथ कश्मीर को फिर से पर्यटन, प्रेम और सौहार्द की भूमि बनाने का प्रयास किया, वह एक बार फिर इस्लामी कट्टरपंथी विचारधारा की हिंसक हवाओं में डूब गया। घाटी, जहाँ कभी शांति की बयार बहा करती थी और प्रेम खिलता था, अब एक बार फिर धार्मिक पहचान के आधार पर की गई हत्याओं से सिहर उठी है।


उग्रवादियों ने लोगों को उनका धर्म पूछकर निशाना बनाया — यह आतंक केवल जान लेने का नहीं, बल्कि समाज की रगों में ज़हर घोलने का प्रयास है। इस खूबसूरत धरती को जोड़ा नहीं जा रहा, बल्कि एक बार फिर नफरत, आतंक और सांप्रदायिकता से छिन्न-भिन्न किया जा रहा है।


यह स्पष्ट है कि ऐसे हमले स्थानीय सहयोग के बिना असंभव हैं। कट्टरपंथी ताक़तों द्वारा गुमराह किए गए कुछ युवाओं ने खुद को आतंकवाद का औज़ार बना लिया है। यह उग्रवाद अब केवल भारत के लिए नहीं, बल्कि स्वयं कश्मीर के भविष्य के लिए एक भयावह अभिशाप बन चुका है।


केवल जवाबी कार्रवाई नहीं, वैचारिक युद्ध भी ज़रूरी है
सरकार की प्रतिक्रिया त्वरित, सटीक और निर्णायक रही — सिंधु जल संधि का निलंबन, अटारी बॉर्डर को बंद करना, वीज़ा सेवाओं की समाप्ति, और पाकिस्तान के राजनयिकों की कटौती जैसे कदम यह साफ़ संदेश देते हैं कि भारत अब न तो सहन कर रहा था, और न ही चुप बैठा है।


भारत ने पहले भी मुँहतोड़ जवाब दिया है — और इस बार यह जवाब पहले से कहीं अधिक करारा, निर्णायक और स्थायी होगा।
लेकिन यह भी स्पष्ट है कि संकट की जड़ केवल सरहद के पार नहीं, बल्कि सिरों के भीतर मौजूद है — उस जहरीली विचारधारा में जो ‘धर्म’ की आड़ में हिंसा, नफरत और आतंक को जायज़ ठहराती है। इस कट्टरपंथी सोच को जड़ से मिटाने के लिए हमें केवल बंदूक से नहीं, विचारों के स्तर पर भी युद्ध लड़ना होगा — और वह युद्ध अब हर मोर्चे पर लड़ा जाएगा: सामाजिक, सांस्कृतिक और वैश्विक।


हमें तीन स्तरों पर वैचारिक युद्ध की आवश्यकता है:

  • स्थानीय – धार्मिक कट्टरता और आतंक समर्थक सोच को कश्मीर में सामाजिक स्तर पर खारिज किया जाए।
  • राष्ट्रीय – युवाओं को शिक्षित किया जाए कि धर्म का वास्तविक उद्देश्य क्या है, और किस प्रकार कुछ लोग उसकी आड़ में राष्ट्रद्रोह फैला रहे हैं।
  • अंतरराष्ट्रीय – संयुक्त राष्ट्र और वैश्विक मंचों पर आतंकवाद और इस्लामी कट्टरता के विरुद्ध साझा नीति और कार्रवाई तय हो।
    भारत के नागरिकों को चाहिए मानसिक और शारीरिक तैयारी
    हमेशा यह उम्मीद करना कि सेना हर जगह मौजूद रहेगी, व्यावहारिक नहीं है। इसलिए जरूरी है कि हम भारत के नागरिकों को संकट के समय भागने नहीं, डटकर खड़े होने और प्रतिक्रिया देने के लिए मानसिक व शारीरिक रूप से तैयार करें।
    नागरिक सुरक्षा प्रशिक्षण, सामुदायिक एकजुटता, आपातकालीन प्रतिक्रिया और आत्मरक्षा अब केवल विकल्प नहीं, अनिवार्यता बन गई हैं।
    जो लोग पहलगाम में मारे गए, वे किसी युद्ध में नहीं थे। वे आम नागरिक थे। और यही तो आतंकवाद की सबसे क्रूर चाल है — वह आम इंसान को लक्ष्य बनाता है। इसलिए अब हर आम भारतीय को असाधारण सजगता, साहस और समर्पण के साथ खड़ा होना होगा।
    समाज को तोड़ने नहीं, जोड़ने की लड़ाई
    कट्टर इस्लामी विचारधारा का असली मकसद भारत को धर्म, जाति और क्षेत्र के आधार पर बाँटना है। इसका जवाब है – राष्ट्रीय एकता। हमें न केवल सरकार से, बल्कि एक-दूसरे से भी जुड़ना होगा।
    हर भारतीय को यह समझना होगा कि यह लड़ाई हिन्दू-मुस्लिम की नहीं, सभ्यता बनाम बर्बरता की है। यह लड़ाई धर्म की नहीं, धर्म की आड़ में हो रही अधर्म की है।
    आख़िरी बात – शांति सिर्फ चाहने से नहीं आती, उसे अर्जित करना पड़ता है
    भारत आज जिस दौर से गुजर रहा है, वह केवल सामरिक संकट नहीं है — यह एक सांस्कृतिक और वैचारिक युद्ध है।
    हमें न केवल आतंकियों को मारना है, बल्कि उस विचार को भी नष्ट करना है जो आतंक को “पवित्र युद्ध” समझता है।
    अगर हम विचारों से लड़ना नहीं सीखेंगे, तो आतंक की जड़ें और गहरी होती जाएंगी।
    अब समय आ गया है कि भारत एक नई पहल करे — ‘विचारों की सुरक्षा नीति’ (Ideological Security Doctrine) जो देश के हर कोने में जागरूकता, जवाबदेही और राष्ट्रीय एकता को मजबूती दे।
    क्या हम तैयार हैं? अब यह सिर्फ सरकार का सवाल नहीं, हम सबका उत्तरदायित्व है।

विचारक/लेखक

मानसी बाजपेई
कंपनी सेक्रेटरी